Thursday, December 23, 2010

अनवरत


मै मांगती  हूँ 
तुम्हारी सफलता 
सूरज के उगने से बुझने तक 
करती हूँ 
तुम्हारा इंतजार 
परछाइयों के डूबने तक 
दिल के समंदर में 
उठती लहरों को 
 रहती हूँ थामे 
तुम्हारी आहट तक 
खाने में 
परोस के प्यार 
निहारती हूँ मुख 
 महकते शब्दों के आने तक 
समेटती हूँ  घर 
बिखेरती  हूँ  सपने 
दुलारती  हूँ  फूलों  को 
तुम्हारे  सोने  तक 
रात  को  खीच  कर   
खुद  में  भरती  हूँ  
नींद  के शामियाने में 
 सोती हूँ जग-जग के 
तुम्हारे उठने तक 
इस तरह 
पूरी होती है यात्रा 
प्रार्थना  से  चिन्तन  तक।    









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