Thursday, April 7, 2011

मेरी आंखों मे जरा इंक़लाब रहने दे

किसी जगह के लिए इंतख़ाब रहने दे
मैं एक सवाल हूँ मेरा जवाब रहने दे।


मैं जानता हूँ तू लिबास पसंद है लेकिन
मैं बेनक़ाब सही, बेनक़ाब रहने दे।


मैं बाग़ी नहीं पर उसके समझने के लिए
मेरी आंखों मे जरा इंक़लाब रहने दे।


तमाम उम्र गुनहगार जिया हूँ या रब
मेरे हक़ में मगर एक सवाब रहने दे।


तमाम शहर मेरे ख़्वाब तले सोया है
मत बेदार कर, तू ज़ेर-ए-ख़्वाब रहने दे।

Wednesday, April 6, 2011

उनको मैख़ाने में ले आओ

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अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जायेंगे
मर के भी चैन न पाया तो किधर जायेंगे


सामने-चश्मे-गुहरबार के, कह दो, दरिया
चढ़ के गर आये तो नज़रों से उतर जायेंगे

ख़ाली ऐ चारागरों
होंगे बहुत मरहमदां
पर मेरे ज़ख्म नहीं ऐसे कि भर जायेंगे

पहुँचेंगे रहगुज़र-ए-यार तलक हम क्योंकर
पहले जब तक न दो-आलम
से गुज़र जायेंगे

आग दोजख़ की भी हो आयेगी पानी-पानी
जब ये आसी
अरक़-ए-शर्म से तर जायेंगे

हम नहीं वह जो करें ख़ून का दावा तुझपर
बल्कि पूछेगा ख़ुदा भी तो मुकर जायेंगे

रुख़े-रौशन से नक़ाब अपने उलट देखो तुम
मेहरो-मह
नज़रों से यारों के उतर जायेंगे

'ज़ौक़' जो मदरसे के बिगड़े हुए हैं मुल्ला
उनको मैख़ाने में ले आओ, सँवर जायेंगे
 -मोहम्मद इब्राहिम ज़ौक़