Friday, June 18, 2010

किसको कौन उबारे!





 


बिना नाव के माझी मिलते
 

मुझको नदी किनारे
 

कितनी राह कटेगी चलकर
 

उनके संग सहारे

 



इनके-उनके ताने सुनना
 

दिन-भर देह गलाना
 

साठ रुपैया मजदूरी के
 

नौ की आग बुझाना
 

अपनी अपनी ढपली सबकी
 

सबके अलग शिकारे

 



बढ़ती जाती रोज उधारी
 

ले-दे काम चलाना
 

रोज-रोज झोपड़ पर अपने
 

नए तगादे आना
 

अपनी-अपनी घातों में सब
 

किसको कौन उबारे!

 



पानी-पानी भरा पड़ा है
 

प्यासा मन क्या बोले
 

किसकी प्यास मिटी है कितनी
 

केवल बातें घोले
 

अपनी आँखों में सपने हैं
 

उनकी में सुख सारे

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