भरा-भरा सा दिन लगता है लेकिन खाली-खाली शाम
कहाँ गयी चौपालों वाली बतियाती मतवाली शाम
घर जाने का मन होता था मन में घर आ जाता था
शाम ढले ही इंतजार में खुलती खिड़की वाली शाम
सारे दिन की थकन मिटाती गय्या जैसी लगती थी
आँगन के पीपल के नीचे करती हुई जुगाली शाम
बाबूजी का हुक्का पानी अम्मा का चूल्हा चौका
सब बच्चों की अपने अपने हिस्से वाली थाली शाम
सूरज जाते जाते लेकर चला गया है अपने साथ
मैंने सिर्फ तुम्हारी ख़ातिर इतनी देर संभाली शाम
वो चौपालों की शामें थीं ये शामे चौराहों की
आवारा सड़कों संग बैठी होगी कहीं मवाली शाम
माना तुम्हें शहर ने जगमग-जगमग रातें दी होंगी
पर इसके बदले में इसने देखो 'रवि' चुराली शाम
--रवीन्द्र शर्मा 'रवि
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