Tuesday, November 2, 2010
ख्वाब कब तक मेरे ज़वाँ रहते
ख्वाब कब तक मेरे ज़वाँ रहते,
रस्ते हमेशा तो नहीं आसाँ रहते।
मरने पर तो ज़मीं नसीब नहीं
जीते-जी कहो फिर कहाँ रहते।
शौक फर्मा रहे वो आग से खेलने का,
आबाद कब तक ये आशियाँ रहते।
अपना बना कर ग़र न लूटते हमें,
जाने कब तक मेरे राजदाँ रहते।
काबू में रहती मन की बेईमानी अगर,
गर्दिशों में भी हम शादमाँ रहते ।
सीखा न था मर-मर के जीना कभी,
आँधियों के हम दरमियाँ रहते ।
लाख सामाँ करो ’अनिल’ की बर्बादी का,
हम तो खुश रहते, जहाँ रहते ।
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