Sunday, February 14, 2010

ये बात उन दिनों की है

ये बात उन दिनों की है
 

जब मैं कविता लिखा करता था

जब
 

डाउन-टू-अर्थ होना फैशन स्टेटमेंट नहीं था
 

और हम माँ के ठेकुए छोड़
 

पिज्जा खाने निकल जाते थे
 

तब हमारे पास वक्त पैसों से कुछ ज्यादा हुआ करता था


 

जब
 

मैंने खरीदी ही थी लाल वाली डायरी और जेटर की लाल कलम
 

जब लिखते समय
 

कोई अक्सर आ जाया करता था
 

सामने वाली खिड़की पर बाल सुखाने
 

हम दोनों के बीच होता था बस गिलहरी भर का फासला
 

तब सूरज का रंग कुछ ज्यादा ही लाल हुआ करता था


 

बहुत दिनों से नहीं लिखी मैंने कोई कविता
 

और पोलीथिन में ठेकुए का चूरा भर बचा है
 

महीनों से बंद है डायरी और खिड़की
 

गिलहरी शायद अब भी आती हो वहां
 

पर यक़ीनन
 

कोई नहीं आता होगा बाल सुखाने
 

अब


कवि- पावस नीर

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