Monday, May 31, 2010

सरस्वती वंदना

" वीणा वादिनी वर दे ।
 

प्रिय स्वतंत्र रव , अमृत मंत्र नव ,
 

भारत में भर दे , वर दे ।
 

वीणा वादिनी वर दे ॥

 


काट अंध उर के बंधन स्तर ,
 

बहा जननि ! ज्योतिर्मय निर्झर
 

कलुष भेद , तम हर , प्रकाश भर
 

जगमग जग कर दे ।
 

वीणा वादिनी वर दे ॥

 

नव गति , नव लय , ताल छंद नव ,
 

नवल कंठ , नव जलद , मंद्र रव
 

नव नभ के नव विहग वृन्द को
 

नव पर , नव स्वर दे , वर दे
 

वीणा वादिनी वर दे ॥ "

क्या लिखूँ


कुछ जीत लिखू या हार लिखूँ
 

या दिल का सारा प्यार लिखूँ ॰॰॰॰॰॰
 

कुछ अपनो के ज़ाज़बात लिखू या सापनो की सौगात लिखूँ ॰॰॰॰॰॰
 

मै खिलता सुरज आज लिखू या चेहरा चाँद गुलाब लिखूँ ॰॰॰॰॰॰
 

वो डूबते सुरज को देखूँ या उगते फूल की सान्स लिखूँ
 

वो पल मे बीते साल लिखू या सादियो लम्बी रात लिखूँ
 

मै तुमको अपने पास लिखू या दूरी का ऐहसास लिखूँ
 

मै अन्धे के दिन मै झाँकू या आँन्खो की मै रात लिखूँ
 

मीरा की पायल को सुन लुँ या गौतम की मुस्कान लिखूँ
 

बचपन मे बच्चौ से खेलूँ या जीवन की ढलती शाम लिखूँ
 

सागर सा गहरा हो जाॐ या अम्बर का विस्तार लिखूँ
 

वो पहली -पहली प्यास लिखूँ या निश्छल पहला प्यार लिखूँ
 

सावन कि बारिश मेँ भीगूँ या आन्खो की मै बरसात लिखूँ
 

गीता का अॅजुन हो जाॐ या लकां रावन राम लिखूँ॰॰॰॰॰
 

मै हिन्दू मुस्लिम हो जाॐ या बेबस ईन्सान लिखूँ॰॰॰॰॰
 

मै ऎक ही मजहब को जी लुँ ॰॰॰या मजहब की आन्खे चार लिखूँ॰॰॰

Sunday, May 30, 2010

दैनिक प्रार्थना

अब सौप दिया है जीवन का सब भार तुम्हारे हाथों में,
 

है जीत तुम्हारे हाथों में और हा तुम्हारे हाथों में.
 

मेरा निश्चय बस एक यही, इक बार तुम्हे पा जाऊं मै,
 

अर्पण कर दू दुनिया भर का, सब प्यार तुम्हारे हाथों में,
 

जो जग में रहूँ, तो ऐसे रहूँ ज्यों जल में कमल का फूल रहे..
 

मेरे सब गुण-दोष समर्पित हो, करतार भगवान तुम्हारे हाथों में.
 

यदि मानव का मुझे जन्म मिले, तो तव चरणों का पुजारी बनू...
 

इस पूजन की इक इक रग का, तार तुम्हारे हाथों में.
 

जब जब संसार का कैदी बनू.. निष्काम भाव से कर्म करूँ..
 

फिर अंत समय में प्राण तजू, निराकार साकार तुम्हारे हाथों में..
 

मुझमे तुममें बस भेद यही.. मै नर हूँ.. तुम नारायण हो..
 

मै हूँ संसार के हाथों में. और संसार तुम्हारे हाथों में..
 

अब सौप दिया है जीवन का सब भार तुम्हारे हाथों में,
 

है जीत तुम्हारे हाथों में और हां तुम्हारे हाथों में.

Friday, May 28, 2010

मैं तुम्हारी प्रतीक्षा में दहलीज पर,


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मैं तुम्हारी प्रतीक्षा में दहलीज पर,

सांतिये नेह के बस बनाता रहा

नैना तकते रहे सूनी पगडंडियाँ,

दीप देहरी पे मन बस जलाता रहा !!

तुम मिले तो लगा मन के हर कोन में,

फिर बसंती पवन का बसेरा हुआ

तुम मिले तो लगा की ग्रहण छट गया,

मन में फिर आस का इक सवेरा हुआ !

इस सवेरे के उगते हुए सूर्य पर,

अर्घ्य निज प्रेम का मैं चढाता रहा !!

दीप देहरी पे मन बस जलाता रहा !!

तुम मिले तो लगा प्रश्न हल हो गए,

वे जो मेरी तुम्हारी प्रतीक्षा में थे

तुम मिले तो लगा जैसे हट से गए,

सब वो संशय जो भावुक समीक्षा में थे !

फिर बनी प्राण , सुख, शान्ति, आधार तुम

मैं तुम्हे अंक भर मोक्ष पाता रहा !!

देहरी पे मन बस जलाता रहा !!

मौन उपमाएं हैं तुम को क्या मैं कहूं,

तुम ही पत्नी, सखा, प्रेमिका, हो प्रिये

हो मेरे गीत तुम, गीत में शब्द तुम,

तुम ही लय, भाव, तुम भूमिका हो प्रिये

मुक्त निज कंठ से, मन से हर मंच से,

तुम को गाता, तुम्ही को बुलाता रहा !!

दीप देहरी पे मन बस जलाता रहा !!

Tuesday, May 25, 2010

हर रस्ते की एक कहानी लगती है


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ये जोड़ी इक राजा रानी लगती है
 
सीधी सादी एक कहानी लगती है

 
दिल भी कितनी बार सुने, झेले इसको
 
धड़कन की हर बात पुरानी लगती है

 
जंगल, वादी, सहरा दरिया ..सब सहरा
 
मुझको तेरी गोदी धानी लगती है

 
बात बुजुर्गों की सुनता है कौन भला
 
बच्चों की बातें, नादानी लगती है

 
आवाजों के जमघट में सन्नाटा है
 
कुछ तो इसने मन में ठानी लगती है

 
मुझे खबर है, खुदा है, वो ना आयेगा
 
उसकी "हाँ" भी "आनाकानी" लगती है

 
आज समन्दर ने उसको कुछ यूँ देखा
 
नदिया शर्म से पानी-पानी लगती है

 
दिल के सेहन में शब भर महकी जाती है
 
बात तुम्हारी रात की रानी लगती है

 
चौराहों पर मिल कर कहते सुनते हैं
 
हर रस्ते की एक कहानी लगती है

 
थोड़ी आँच ज़रा रौशनी और धुआँ
 
"आतिश" की हर इक शय फानी लगती है

Thursday, May 20, 2010

इश्क सचमुच इक बला है

इश्क सचमुच इक बला है

खुद मजा है,खुद सजा है



हो गई फ़िर से खता है

दिल तुझे जो दे दिया है



इश्क सचमुच इक बला है

रोग भी खुद,खुद दवा है



गम से बचकर है निकलना

प्यार ही बस रास्ता है



आ रही शायद वही है

दिल मेरा जो झूमता है



है हसीं अपनी धरा ये

चाँद पीछे घूमता है



ढूंढता है ‘श्याम किसको

दिल हुआ क्या लापता है

माना तुम्हें शहर ने जगमग जगमग रातें दी होंगी

भरा-भरा सा दिन लगता है लेकिन खाली-खाली शाम

कहाँ गयी चौपालों वाली बतियाती मतवाली शाम



घर जाने का मन होता था मन में घर आ जाता था

शाम ढले ही इंतजार में खुलती खिड़की वाली शाम




सारे दिन की थकन मिटाती गय्या जैसी लगती थी

आँगन के पीपल के नीचे करती हुई जुगाली शाम



बाबूजी का हुक्का पानी अम्मा का चूल्हा चौका

सब बच्चों की अपने अपने हिस्से वाली थाली शाम



सूरज जाते जाते लेकर चला गया है अपने साथ

मैंने सिर्फ तुम्हारी ख़ातिर इतनी देर संभाली शाम





वो चौपालों की शामें थीं ये शामे चौराहों की

आवारा सड़कों संग बैठी होगी कहीं मवाली शाम





माना तुम्हें शहर ने जगमग-जगमग रातें दी होंगी

पर इसके बदले में इसने देखो 'रवि' चुराली शाम 




--रवीन्द्र शर्मा 'रवि

Thursday, May 13, 2010

बेफिक्री

दर्द क्या होता है, बताएँगे किसी रोज़...

कमाल की ग़ज़ल सुनायेंगे किसी रोज़...
 

उड़ने दो परिंदों को आज़ाद फिज़ाओ में...
 

हमारे हुए तो लौट आयेंगे किसी रोज़....

-Sabeena Bee

Google Translated it as

What is painful, tell us a day ...
Ghazal Sunayaeange an amazing day ...
Fijao fly in the liberation of two Parindoan ... 
So while we'll come back some day ....

Tuesday, May 11, 2010

अपने घर में कहीं ख़ुदा रखना

जब किसी से कोई गिला रखना
सामने अपने आईना रखना

यूँ उजालों से वास्ता रखना
शम्मा के पास ही हवा रखना

घर की तामीर चाहे जैसी हो
इस में रोने की जगह रखना

मस्जिदें हैं नमाज़ियों के लिये
अपने घर में कहीं ख़ुदा रखना

मिलना जुलना जहाँ ज़रूरी हो
मिलने-जुलने का हौसला रखना

--

निदा फाजली

Sunday, May 9, 2010

जब मैं छोटा था,

जब मैं छोटा था,
शायद दुनिया बहुत बड़ी हुआ करती थी...
मुझे याद है मेरे घर से "स्कूल" तक का वो रास्ता,
क्या क्या नहीं था वहां,
छत के ठेले, जलेबी की दुकान, बर्फ के गोले, सब कुछ,
अब वहां "मोबाइल शॉप", "विडियो पार्लर" हैं, फिर भी सब सूना है....
शायद अब दुनिया सिमट रही है......

जब मैं छोटा था,
शायद शामे बहुत लम्बी हुआ करती थी....
मैं हाथ में पतंग की डोर पकडे, घंटो उडा करता था,
वो लम्बी "साइकिल रेस", वो बचपन के खेल,
वो हर शाम थक के चूर हो जाना,
अब शाम नहीं होती, दिन ढलता है और सीधे रात हो जाती है..........
शायद वक्त सिमट रहा है........

जब मैं छोटा था,
शायद दोस्ती बहुत गहरी हुआ करती थी,
दिन भर वो हुज़ोम बनाकर खेलना,
वो दोस्तों के घर का खाना, वो साथ रोना,
अब भी मेरे कई दोस्त हैं, पर दोस्ती जाने कहाँ है,
जब भी "ट्रेफिक सिग्नल" पे मिलते हैं "हाय" करते हैं,
और अपने अपने रास्ते चल देते हैं,
शायद अब रिश्ते बदल रहें हैं.....