Saturday, March 27, 2010

मैं था तो तेरे शहर में पर और कहीं था


वो राह कोई और सफ़र और कहीं था 

ख्वाबों में जो देखा था वो घर और कहीं था

 
मैं हो न सका शहर का इस शहर में रह के
 
मैं था तो तेरे शहर में पर और कहीं था

 
कुछ ऐसे दुआएं थीं मेरे साथ किसी की
 
साया था कहीं और शज़र और कहीं था

 
बिस्तर पे सिमट आये थे सहमे हुए बच्चे
 
माँ-बाप में झगड़ा था असर और कहीं था

 
इस डर से कलम कर गया कुछ हाथ शहंशाह
 
गो ताज उसी का था हुनर और कहीं था

 
था रात मेरे साथ 'रवि' देर तलक चाँद
 
कमबख्त मगर वक़्त ए सहर और कहीं था

रिश्ते बदल गये

रिश्ते बदल गये
 
सिक्कों में ढल गये

 
दुश्मन तो दूर थे
 
अपने ही छल गये

 
जो थे खरे, रहे
 
खोटे थे चल गये

 
काम क्या आ पड़ा
 
थे सभी टल गये

 
जाने कहाँ फिसल
 
खुशियों के पल गये

 
बदला तू 'श्याम’ कुछ
 
कुछ हम बदल गये

Friday, March 5, 2010

हमारा आम होता है तुम्हारा खास होता है

कभी खामोश लम्हों में मुझे अहसास होता है
 
कि जैसे ज़िन्दगी भी रूह का बनवास होता है

 
जिसे वो रौनके होने पे अक्सर भूल जाता है
 
वही तन्हाईओं में आदमी के पास होता है

 
सुना था दर्द होता है ग़मों का एक सा लेकिन 

हमारा आम होता है तुम्हारा खास होता है

 
किसी के वास्ते बरसात है बदला हुआ मौसम
 
किसी के वास्ते ये साल भर की आस होता है

 
जमा होते हैं शब् भर सब सितारे चाँद के घर में
 
न जाने कौन से मुद्दे पे ये इजलास होता है

 
'रवि ' मुमकिन है सहरा में कहीं मिल जाये कुछ पानी
 
समंदर तो हकीकत में मुकम्मल प्यास होता है

 
कवि- रवीन्द्र शर्मा 'रवि'