ख्वाहिशें, टूटे गिलासों सी निशानी हो गई।
जिदंगी जैसे कि, बेवा की जवानी हो गई।।
कुछ नया देता तुझे ए मौत, मैं पर क्या करूं
जिंदगी की शक्ल भी, बरसों पुरानी हो गई।।
मैं अभी कर्ज-ए-खिलौनों से उबर पाया नहीं
लोग कहते हैं, तेरी गुड़िया सयानी हो गई।।
आओ हम मिलकर, इसे खाली करें और फिर भरें
सोच जेहनो में नए मटके का पानी हो गई।।
दुश्मनी हर दिल में जैसे कि किसी बच्चे की जिद
दोस्ती दादा के चश्मे की कमानी हो गई।।
मई के ‘सूरज’ की तरह, हर रास्तों की फितरतें
मंजिलें बचपन की परियों की कहानी हो गई।।
Saturday, November 27, 2010
Saturday, November 20, 2010
उसे इश्क क्या है पता नहीं
उसे इश्क क्या है पता नहीं
कभी शम्अ पर जो जला नहीं.
कभी शम्अ पर जो जला नहीं.
वो जो हार कर भी है जीतता
उसे कहते हैं वो जुआ नहीं.
है अधूरी-सी मेरी जिंदगी
मेरा कुछ तो पूरा हुआ नहीं.
न बुझा सकेंगी ये आंधियां
ये चराग़े दिल है दिया नहीं.
मेरे हाथ आई बुराइयां
मेरी नेकियों को गिला नहीं.
मै जो अक्स दिल में उतार लूं
मुझे आइना वो मिला नहीं.
जो मिटा दे ‘देवी’ उदासियां
कभी साज़े-दिल यूं बजा नहीं.
Friday, November 19, 2010
कबीर के दोहे
सन्त मिले सुख ऊपजै दुष्ट मिले दुख होय ।
सेवा कीजै साधु की, जन्म कृतारथ होय ॥
आब गया आदर गया, नैनन गया सनेह ।
यह तीनों तब ही गये, जबहिं कहा कुछ देह ॥
एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध ।
कबीर संगत साधु की, करै कोटि अपराध ॥
Wednesday, November 17, 2010
उम्र के धूप चढ़ल
उम्र के धूप चढ़ल, धूप सहाते नइखे
हमरा हमराही के इ बात बुझाते नइखे
मंजिले इश्क में कइसन इ मुकाम आइल बा
हाय ! हमरा से “आई.लव.यू” कहाते नइखे
देह अइसन बा कि ई आँख फिसल जाताटे
रूप अइसन बा कि दरपन में समाते नइखे
जब से देखलें हईँ हम सोनपरी के जादू
मन बा खरगोश भइल जोश अड़ाते नइखे
कइसे सँपरेला अकेले उहां प तहरा से
आह! उफनत बा नदी, बान्ह बन्हाते नइखे
साथ में तोहरा जे देखलें रहीं सपना ओकर
याद आवत बा बहुत याद ऊ जाते नइखे
हमरा डर बा कहीं पागल ना हो जाए ‘भावुक’
दर्द उमड़त बा मगर आँख लोराते नइखे
हमरा हमराही के इ बात बुझाते नइखे
मंजिले इश्क में कइसन इ मुकाम आइल बा
हाय ! हमरा से “आई.लव.यू” कहाते नइखे
देह अइसन बा कि ई आँख फिसल जाताटे
रूप अइसन बा कि दरपन में समाते नइखे
जब से देखलें हईँ हम सोनपरी के जादू
मन बा खरगोश भइल जोश अड़ाते नइखे
कइसे सँपरेला अकेले उहां प तहरा से
आह! उफनत बा नदी, बान्ह बन्हाते नइखे
साथ में तोहरा जे देखलें रहीं सपना ओकर
याद आवत बा बहुत याद ऊ जाते नइखे
हमरा डर बा कहीं पागल ना हो जाए ‘भावुक’
दर्द उमड़त बा मगर आँख लोराते नइखे
हमे बहुत दुःख है !
ईश्वर उन सभी मूक पशुओ की आत्मा को शांति दे जो आज धर्म के नाम पर अपने जीवन की बलि देने जा रहे है....
एवं उन सभी मनुष्यों की सदबुद्धि दे जो ऐसे कार्यो में सलग्न है.....
आप सभी से निवेदन है... की आज ईश्वर से प्रार्थना जरुर करे....
एवं ये चलचित्र अवश्य देखे....
click here
http://www.earthlings.com/
एवं उन सभी मनुष्यों की सदबुद्धि दे जो ऐसे कार्यो में सलग्न है.....
आप सभी से निवेदन है... की आज ईश्वर से प्रार्थना जरुर करे....
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Tuesday, November 16, 2010
तुम स्वाभिमान लिखना.
" तुमने कलम उठाई है तो वर्तमान लिखना ,
हो सके तो राष्ट्र का कीर्तिमान लिखना .
चापलूस तो लिख चुके हैं चालीसे बहुत ,
हो सके तुम ह्रदय का तापमान लिखना ..
महलों मैं गिरवी है गरिमा जो गाँव की ,
सहमी सी सड़कों पर तुम स्वाभिमान लिखना."
-- राजीव चतुर्वेदी
हो सके तो राष्ट्र का कीर्तिमान लिखना .
चापलूस तो लिख चुके हैं चालीसे बहुत ,
हो सके तुम ह्रदय का तापमान लिखना ..
महलों मैं गिरवी है गरिमा जो गाँव की ,
सहमी सी सड़कों पर तुम स्वाभिमान लिखना."
-- राजीव चतुर्वेदी
शबनमी होंठ ने छुआ - देवी नागरानी की ग़ज़ल
शबनमी होंठ ने छुआ जैसे
कान में कुछ कहे हवा जैसे.
लेके आँचल उड़ी हवा जैसे
सैर को निकली हो सबा जैसे.
उससे कुछ इस तरह हुआ मिलना
मिलके कोई बिछड़ रहा जैसे.
इक तबीयत थी उनकी, इक मेरी
मैं हंसी उनपे बल पड़ा जैसे
लोग कहकर मुकर भी जाते हैं
आंख सच का है आईना जैसे
वो किनारों के बीच की दूरी
है गवारा ये फ़ासला जैसे
शहर में बम फटा था कल लेकिन
दिल अभी तक डरा हुआ जैसे.
देख कर आदमी की करतूतें
आती मुझको रही हया जैसे
टूट कर शाख़ से गिरा पत्ता
वो खिज़ां से ही डर गया जैसे.
जिस सहारे में पुख़्तगी ढूंढी
था वही रेत पर खड़ा जैसे
-देवी नागरानी जी
कान में कुछ कहे हवा जैसे.
लेके आँचल उड़ी हवा जैसे
सैर को निकली हो सबा जैसे.
उससे कुछ इस तरह हुआ मिलना
मिलके कोई बिछड़ रहा जैसे.
इक तबीयत थी उनकी, इक मेरी
मैं हंसी उनपे बल पड़ा जैसे
लोग कहकर मुकर भी जाते हैं
आंख सच का है आईना जैसे
वो किनारों के बीच की दूरी
है गवारा ये फ़ासला जैसे
शहर में बम फटा था कल लेकिन
दिल अभी तक डरा हुआ जैसे.
देख कर आदमी की करतूतें
आती मुझको रही हया जैसे
टूट कर शाख़ से गिरा पत्ता
वो खिज़ां से ही डर गया जैसे.
जिस सहारे में पुख़्तगी ढूंढी
था वही रेत पर खड़ा जैसे
-देवी नागरानी जी
तनहाई
रातों को यह नींद उड़ाती तनहाई
टुकड़ा टुकड़ा वक़्त चबाती तनहाई
टुकड़ा टुकड़ा वक़्त चबाती तनहाई
यादों की फेहरिस्त बनाती तनहाई
बीते दुःख को फिर सहलाती तनहाई
रात के पहले पहर में आती तनहाई
सुबह का अंतिम पहर मिलाती तनहाई
सन्नाटा रह रह कुत्ते सा भौंक र हा
शब पर अपने दांत गड़ाती तनहाई
यादों के बादल टप टप टप बरस रहे
अश्कों को आँचल से सुखाती तनहाई
अश्कों को आँचल से सुखाती तनहाई
खुद से हँसना खुद से रोना बति याना
सुन सुन अपने सर को हिलाती तनहा ई
सुन सुन अपने सर को हिलाती तनहा
जीवन भर का लेखा जोखा पल भर में
रिश्तों की तारीख बताती तनहा ई
सोचों के इस लम्बे सफ़र में रह रह कर
करवट करवट मन बहलाती तनहाई
-प्रेमचंद सहजवाला
Friday, November 12, 2010
बुरा लगता है.....
यूँ तो चलती है हवा रोज़ फिज़ाओ में.
पर उसका उनको छू कर गुजरजाना बुरा लगता है..
उनकी हंसी है हमे सबसे प्यारी..
पर उनका किसी को देख के मुस्कुराना बुरा लगता है.
इन्तजार में उनके बिता देंगे सारी ज़िन्दगी...
लेकिन उसका यूँ मिलकर बिछड़ जाना बुरा लगता है...
कह तो देते है हम रोज़ बेवफ़ा उनको...
पर किसी और का उन पर इल्ज़ाम लगाना बुरा लगता है.
वो नाम तक न ले हमारा ज़िन्दगी भर, कोई गम नहीं...
पर ना जाने क्यूं उनके लबो पर किसी और का नाम आना बुरा लगता है.....
Dr. Chirayu mishra
पर उसका उनको छू कर गुजरजाना बुरा लगता है..
उनकी हंसी है हमे सबसे प्यारी..
पर उनका किसी को देख के मुस्कुराना बुरा लगता है.
इन्तजार में उनके बिता देंगे सारी ज़िन्दगी...
लेकिन उसका यूँ मिलकर बिछड़ जाना बुरा लगता है...
कह तो देते है हम रोज़ बेवफ़ा उनको...
पर किसी और का उन पर इल्ज़ाम लगाना बुरा लगता है.
वो नाम तक न ले हमारा ज़िन्दगी भर, कोई गम नहीं...
पर ना जाने क्यूं उनके लबो पर किसी और का नाम आना बुरा लगता है.....
Dr. Chirayu mishra
Dr. Chirayu Mishra
हकीकत के रूप में ख्वाब बनता गया.
धीरे धीरे वो चेहरा किताब बनता गया.
उसने कहा मुझे पानी अच्छा लगता है.
और मेरी आँखों का हर आंसू तालाब बनता गया.
धीरे धीरे वो चेहरा किताब बनता गया.
उसने कहा मुझे पानी अच्छा लगता है.
और मेरी आँखों का हर आंसू तालाब बनता गया.
Thursday, November 11, 2010
हमसफर यूँ अब मेरी मुश्किल हुई
हमसफर यूँ अब मेरी मुश्किल हुई
राह जब आसां हुई, मुश्किल हुई
हम तो मुश्किल में सुकूं से जी लिए
मुश्किलों को पर बड़ी मुश्किल हुयी
ख्वाब भी आसान कब थे देखने
आँख पर जब भी खुली, मुश्किल हुई
फिर अड़ा है शाम से जिद पे दिया
फिर हवाओं को बड़ी मुश्किल हुई
वो बसा है जिस्म की रग-रग में यूँ
जब भी पुरवाई चली, मुश्किल हुई
रोज़ दिल को हमने समझाया मगर
दिन ब दिन ये दिल्लगी मुश्किल हुई
मानता था सच मेरी हर बात को
जब नज़र उस से मिली मुश्किल हुई
होश दिन में यूँ भी रहता है कहाँ
शाम जब ढलने लगी मुश्किल हुई
क़र्ज़ कोई कब तलक देता रहे
हम से रखनी दोस्ती मुश्किल हुई
चाँद तारे तो बहुत ला कर दिए
उसने साड़ी मांग ली, मुश्किल हुई
नन्हे मोजों को पड़ेगी ऊन कम
आ रही है फिर ख़ुशी, मुश्किल हुई
रोज़ थोड़े हम पुराने हो चले
रोज़ ही कुछ फिर नयी मुश्किल हुई
जो सलीका बज़्म का आया हमें
बात करनी और भी मुश्किल हुई
और सब मंजूर थी दुशवारियां
जब ग़ज़ल मुश्किल हुई, मुश्किल हुई
Tuesday, November 9, 2010
वन्दे मातरम् ।
वन्दे मातरम् ।
——————————————–
भारत भक्तो भारत फिर से, वैभव पाये परम् ।
सब धर्मों से बढ़कर भाई, होता राष्ट्रधरम ॥
वन्दे मातरम् । वन्दे मातरम् ।
तत्ववेत्ता ऋषि मुनियों ने, परम सत्य ये जाना ।
शस्यश्यामला इस धरती को, अपनी माता माना ॥
माता भूमि और पुत्रा मैं, वेद वचन गुंजाया
वन्दे मातरम गाकर, बंकिम ने ये ही दोहराया ।
कहा राम ने जन्म भूमि, है स्वर्ग से भी उत्तम ।
वन्दे मातरम् । वन्दे मातरम् ।
—————————————————————–
सबसे पहले मानवता ने, ऑंख यही थी खोली।
सीखी और सिखाई जग को प्रेम-प्रीति की बोली ।
ज्ञान को हमने नहीं बनाया लाभकमाऊ धंधा ।
जगद्गुरू थे हम कहते, ये तक्षशिला नालन्दा ।
देवों की भी चाह रही है, लेवें यहाँ जनम ।
वन्दे मातरम् । वन्दे मातरम् ।
—————————————————————–
इस भूमि पर आकर, छह ऋतुओं ने रंग बिखेरे ।
समृद्धि ने भी आकर के, डाले अपने डेरे ।
शीत घाम और वर्षा, तीनों अपने रंग दिखाती ।
यहाँ मरूस्थल भी है तो, गंगा भी है लहराती ।
यहाँ जन्मना ही प्रमाण है, अच्छे पूर्व करम ।
वन्दे मातरम् । वन्दे मातरम् ।
—————————————————————–
एक ज्योति जो सबके अंदर, करती है उजियारा ।
एक प्राण की सब जीवों के, अंदर बहती धारा ॥
पंचतत्व के पुतले हम सब, सबका एक रचयिता ।
उसी शक्ति ने विश्व रूप में, खुद को है विस्तारा ।
उसी एक के नाम कई, ये जाना सत्य परम् ।
वन्दे मातरम् । वन्दे मातरम् ।
—————————————————————–
होता क्या परिवार जगत को, भारत ने सिखलाया ।
सारी वसुधा है कुटुंब ये, दिव्य घोष गुंजाया ॥
सच को खुद ही जानो, केवल ऑंख मींच मत मानो ।
तलवारों की दम पर, अपना धर्म नहीं फैलाया ।
ज्ञान-ध्यान और दान का, जग में फहराया परचम।
वन्दे मातरम् । वन्दे मातरम् ।
—————————————————————–
हमने पहले विस्तृत नभ के, नक्षत्रो को जाना ।
गणित, रसायन, भौतिकविद्या, के सच को पहचाना ॥
शिल्प, चिकित्सा, कला और, उद्योग हमारी थाती ।
इन विज्ञानों के दीपक में, रही धर्म की बाती ।
गुफा निवासी जटा-जूट, धारी वैज्ञानिक हम ॥
वन्दे मातरम् । वन्दे मातरम् ।
—————————————————————–
अब भी अपनी बुद्धि का, जग लोहा मान रहा है ।
भारत का ही है भविष्य, मन ही मन मान रहा है ।
भारत भक्ति को शंका से, न देखो जगवालों,
भारत का उत्थान ही, दुनियाँ का उत्थान रहा है ।
दुनियाँ है परिवार कहा, वसुधैव कुटुंबरम्
वन्दे मातरम् । वन्दे मातरम् ।
—————————————————————–
ज्ञान और विज्ञान का, हमने जग को पाठ पढ़ाया ।
गणित, रसायन, शिल्प कृषि को दूर दूर पहुचायाँ
मूल है भारत में ही उस, विज्ञान के अक्षय वट की,
सारे जग को आज मिल रही जिसकी शीतल छाया ॥
लक्ष्य रहा है बहुजन का हित बहूजनाय सुखम् ॥
वन्दे मातरम् । वन्दे मातरम् ।
—————————————————————–
वो शक्ति जिसने भारत को, जग सिरमौर बनाया ।
वो बुद्धि जिसने अतीत में, ज्ञान का दीप जलाया ॥
नहीं हुई है लुप्त मनों में, सुप्त पड़ी है भाई
सूरज से अंगारों पर ज्यों, राख का बादल छाया ।
भरम हटे तो हम चमकेंगे, सूरज से चम-चम ।
वन्दे मातरम् । वन्दे मातरम् ।
—————————————————————–
जो ऑंखें देख रही है, सच है उससे आगे ।
थोड़ी सी कठिनाई इससे, डरकरके न भागे ।
अंधियारा जो दूर दूर तक, देता हमें दिखाई
केवल तबतक है जबतक, हम आंख खोल न जागें ।
दूर हटायें अपने मन पर, छाया भेद भरम् ॥
वन्दे मातरम् । वन्दे मातरम् ।
—————————————————————–
वेद महाभारत रामायण, गीता परम पुनीता ।
दिव्य सती अनुसुइया, सावित्री यशोधरा सीता ॥
वर्धमान, शंकर, गौतम, दशमेश सरीखे ज्ञानी
गूंज रही है अब भी जग में, जिनकी सीख सुहानी ।
दिया जगत को एक सत्य, कि दीपक बनो स्वयं ।
वन्दे मातरम् । वन्दे मातरम् ।
——————————————–
भारत भक्तो भारत फिर से, वैभव पाये परम् ।
सब धर्मों से बढ़कर भाई, होता राष्ट्रधरम ॥
वन्दे मातरम् । वन्दे मातरम् ।
तत्ववेत्ता ऋषि मुनियों ने, परम सत्य ये जाना ।
शस्यश्यामला इस धरती को, अपनी माता माना ॥
माता भूमि और पुत्रा मैं, वेद वचन गुंजाया
वन्दे मातरम गाकर, बंकिम ने ये ही दोहराया ।
कहा राम ने जन्म भूमि, है स्वर्ग से भी उत्तम ।
वन्दे मातरम् । वन्दे मातरम् ।
—————————————————————–
सबसे पहले मानवता ने, ऑंख यही थी खोली।
सीखी और सिखाई जग को प्रेम-प्रीति की बोली ।
ज्ञान को हमने नहीं बनाया लाभकमाऊ धंधा ।
जगद्गुरू थे हम कहते, ये तक्षशिला नालन्दा ।
देवों की भी चाह रही है, लेवें यहाँ जनम ।
वन्दे मातरम् । वन्दे मातरम् ।
—————————————————————–
इस भूमि पर आकर, छह ऋतुओं ने रंग बिखेरे ।
समृद्धि ने भी आकर के, डाले अपने डेरे ।
शीत घाम और वर्षा, तीनों अपने रंग दिखाती ।
यहाँ मरूस्थल भी है तो, गंगा भी है लहराती ।
यहाँ जन्मना ही प्रमाण है, अच्छे पूर्व करम ।
वन्दे मातरम् । वन्दे मातरम् ।
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एक ज्योति जो सबके अंदर, करती है उजियारा ।
एक प्राण की सब जीवों के, अंदर बहती धारा ॥
पंचतत्व के पुतले हम सब, सबका एक रचयिता ।
उसी शक्ति ने विश्व रूप में, खुद को है विस्तारा ।
उसी एक के नाम कई, ये जाना सत्य परम् ।
वन्दे मातरम् । वन्दे मातरम् ।
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होता क्या परिवार जगत को, भारत ने सिखलाया ।
सारी वसुधा है कुटुंब ये, दिव्य घोष गुंजाया ॥
सच को खुद ही जानो, केवल ऑंख मींच मत मानो ।
तलवारों की दम पर, अपना धर्म नहीं फैलाया ।
ज्ञान-ध्यान और दान का, जग में फहराया परचम।
वन्दे मातरम् । वन्दे मातरम् ।
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हमने पहले विस्तृत नभ के, नक्षत्रो को जाना ।
गणित, रसायन, भौतिकविद्या, के सच को पहचाना ॥
शिल्प, चिकित्सा, कला और, उद्योग हमारी थाती ।
इन विज्ञानों के दीपक में, रही धर्म की बाती ।
गुफा निवासी जटा-जूट, धारी वैज्ञानिक हम ॥
वन्दे मातरम् । वन्दे मातरम् ।
—————————————————————–
अब भी अपनी बुद्धि का, जग लोहा मान रहा है ।
भारत का ही है भविष्य, मन ही मन मान रहा है ।
भारत भक्ति को शंका से, न देखो जगवालों,
भारत का उत्थान ही, दुनियाँ का उत्थान रहा है ।
दुनियाँ है परिवार कहा, वसुधैव कुटुंबरम्
वन्दे मातरम् । वन्दे मातरम् ।
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ज्ञान और विज्ञान का, हमने जग को पाठ पढ़ाया ।
गणित, रसायन, शिल्प कृषि को दूर दूर पहुचायाँ
मूल है भारत में ही उस, विज्ञान के अक्षय वट की,
सारे जग को आज मिल रही जिसकी शीतल छाया ॥
लक्ष्य रहा है बहुजन का हित बहूजनाय सुखम् ॥
वन्दे मातरम् । वन्दे मातरम् ।
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वो शक्ति जिसने भारत को, जग सिरमौर बनाया ।
वो बुद्धि जिसने अतीत में, ज्ञान का दीप जलाया ॥
नहीं हुई है लुप्त मनों में, सुप्त पड़ी है भाई
सूरज से अंगारों पर ज्यों, राख का बादल छाया ।
भरम हटे तो हम चमकेंगे, सूरज से चम-चम ।
वन्दे मातरम् । वन्दे मातरम् ।
—————————————————————–
जो ऑंखें देख रही है, सच है उससे आगे ।
थोड़ी सी कठिनाई इससे, डरकरके न भागे ।
अंधियारा जो दूर दूर तक, देता हमें दिखाई
केवल तबतक है जबतक, हम आंख खोल न जागें ।
दूर हटायें अपने मन पर, छाया भेद भरम् ॥
वन्दे मातरम् । वन्दे मातरम् ।
—————————————————————–
वेद महाभारत रामायण, गीता परम पुनीता ।
दिव्य सती अनुसुइया, सावित्री यशोधरा सीता ॥
वर्धमान, शंकर, गौतम, दशमेश सरीखे ज्ञानी
गूंज रही है अब भी जग में, जिनकी सीख सुहानी ।
दिया जगत को एक सत्य, कि दीपक बनो स्वयं ।
वन्दे मातरम् । वन्दे मातरम् ।
Sunday, November 7, 2010
क्या खोया है, क्या पाया है
क्या खोया है, क्या पाया है
आज तुम्हें बतलाते हैं
आओ साथियों, देशवासियो
भारत तुम्हें दिखाते हैं ॥
जिस गौ को गौमाता कहकर
गाँधी सेवा करते थे
जिसके उर में सभी देवता
वास हमेशा करते थे
हिन्द भले ही मुक्त हुआ हो
गौमाता बेहाल अभी
कटती गऊएँ किसे पुकारें
उनके सर है काल अभी
गौमाता की शोणित-बूँदें
जब धरती पर गिरती हैं
तब आज़ादी की व्याख्याएँ
ज्यों आरी से चिरती हैं
गौ भारत का जीवन-धन है
हिन्दू चिन्तन की धारा
गौमाता को जो काटे, वह
है माता का हत्यारा
कृष्ण कन्हैया की गऊओं की
गाथा करुण सुनाते हैं
कया खोया है, क्या पाया है
आज तुम्हें बतलाते हैं ॥
हिन्द देश की भाषा हिन्दी
संविधान में माता है
मैकाले की अँग्रेजी से
भारत जाना जाता हैं
राजघाट से राजपाट तक
अँग्रेजी की धूम बड़ी
औ’ हिन्दी, झोपड़-पटटी में
कैसी है मजबूर खड़ी
न्यायालय से अस्पताल तक
भाषा अब अँग्रेजी है
हिन्दी संविधान में बन्दी
रानी अब अँग्रेजी है
मन्त्री जी से सन्त्री जी तक
बोलें सब अँग्रेजी में
हर काँलिज, हर विद्यालय में
डोंलें सब अँग्रेजी में
अपनी भाषा हिन्दी से हम
क्यों इतना कतराते हैं
क्या खोया है, क्या पाया है
आज तुम्हें बतलाते है ॥
आज तुम्हें बतलाते हैं
आओ साथियों, देशवासियो
भारत तुम्हें दिखाते हैं ॥
जिस गौ को गौमाता कहकर
गाँधी सेवा करते थे
जिसके उर में सभी देवता
वास हमेशा करते थे
हिन्द भले ही मुक्त हुआ हो
गौमाता बेहाल अभी
कटती गऊएँ किसे पुकारें
उनके सर है काल अभी
गौमाता की शोणित-बूँदें
जब धरती पर गिरती हैं
तब आज़ादी की व्याख्याएँ
ज्यों आरी से चिरती हैं
गौ भारत का जीवन-धन है
हिन्दू चिन्तन की धारा
गौमाता को जो काटे, वह
है माता का हत्यारा
कृष्ण कन्हैया की गऊओं की
गाथा करुण सुनाते हैं
कया खोया है, क्या पाया है
आज तुम्हें बतलाते हैं ॥
हिन्द देश की भाषा हिन्दी
संविधान में माता है
मैकाले की अँग्रेजी से
भारत जाना जाता हैं
राजघाट से राजपाट तक
अँग्रेजी की धूम बड़ी
औ’ हिन्दी, झोपड़-पटटी में
कैसी है मजबूर खड़ी
न्यायालय से अस्पताल तक
भाषा अब अँग्रेजी है
हिन्दी संविधान में बन्दी
रानी अब अँग्रेजी है
मन्त्री जी से सन्त्री जी तक
बोलें सब अँग्रेजी में
हर काँलिज, हर विद्यालय में
डोंलें सब अँग्रेजी में
अपनी भाषा हिन्दी से हम
क्यों इतना कतराते हैं
क्या खोया है, क्या पाया है
आज तुम्हें बतलाते है ॥
Tuesday, November 2, 2010
ख्वाब कब तक मेरे ज़वाँ रहते
ख्वाब कब तक मेरे ज़वाँ रहते,
रस्ते हमेशा तो नहीं आसाँ रहते।
मरने पर तो ज़मीं नसीब नहीं
जीते-जी कहो फिर कहाँ रहते।
शौक फर्मा रहे वो आग से खेलने का,
आबाद कब तक ये आशियाँ रहते।
अपना बना कर ग़र न लूटते हमें,
जाने कब तक मेरे राजदाँ रहते।
काबू में रहती मन की बेईमानी अगर,
गर्दिशों में भी हम शादमाँ रहते ।
सीखा न था मर-मर के जीना कभी,
आँधियों के हम दरमियाँ रहते ।
लाख सामाँ करो ’अनिल’ की बर्बादी का,
हम तो खुश रहते, जहाँ रहते ।
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