मिला वो भी नहीं करते..
मिला हम भी नहीं करते..
वफ़ा वो भी नहीं करते..
दगा हम भी नहीं करते..!
उन्हें रुसवाई का दुःख....
उन्हें रुसवाई का दुःख..
हमे तन्हाई का डर...
गिला वो भी नहीं करते..
शिकवा हम भी नहीं करते...!
किसी मोड़ पर मुलाक़ात हो जाती है अक्सर....
किसी मोड़ पर मुलाक़ात हो जाती है अक्सर....
रुका वो भी नहीं करते...
रुका हम भी नहीं करते...
जब भी देखते है उन्हें,
सोचते है कुछ कहें...
जब भी देखते है उन्हें,
सोचते है कुछ कहें...
सुना वो भी नहीं करते..
कहा हम भी नहीं करते...
लेकिन ये भी सच है..
की उन्हें भी है मोहोब्बत हमसे..
इंकार वो भी नहीं करते...
इज़हार हम भी नहीं करते....
A Msg Sent By Mr. Dr. Chirayu Mishra From Indore
Friday, April 30, 2010
मोहब्बत बड़ी हीं कड़वी सुपारी है..
कड़वी सुपारी है!
आँखों की आरी से,
दो-दो दुधारी से,
तिल-तिल के,
छिल-छिल के,
काटी है बारी से...
बोलूँ क्या? तोलूँ क्या?
ग़म सारे खोलूँ क्या?
टुकड़ों की गठरी ये
पलकों की पटरी पे
जब से उतारी है,
धरती से, सख्ती से
किस्मत की तख्ती से
अश्कों की अलबेली
बरसात ज़ारी है..
आशिक कहे कैसे,
चुपचाप है भय से,
लेकिन ये सच है कि
चाहत की बेहद हीं
कीमत करारी है..
कड़्वी सुपारी है!
ओठों के कोठों पे
हर लम्हा सजती ये
हर लम्हा रजती ये
हर राग भजती है!
कोई न जाने कि
इसको चखे जो
सलाखों के पीछे
इतना धंसे वो
कि
दिल का मुचलका
जमा करने पर भी
तो
बाकी जमाने हीं
भर की उधारी है..
कैसा जुआरी है?
आँखों से पासे
जो फेंके अदा से,
उन्हीं में उलझ के
कहीं और मँझ के
किसी की हँसी पे
बिना सोचे रीझ के
ये मन की तिजोरी
से मुहरें गँवा दे..
तभी तो
कभी तो
बने ये भिखारी है..
आशिक भी यारों
बला का जुआरी है..
मानो, न मानो
पर सच तो यही है-
मोहब्बत बड़ी हीं
कड़वी सुपारी है..
-विश्व दीपक
आँखों की आरी से,
दो-दो दुधारी से,
तिल-तिल के,
छिल-छिल के,
काटी है बारी से...
बोलूँ क्या? तोलूँ क्या?
ग़म सारे खोलूँ क्या?
टुकड़ों की गठरी ये
पलकों की पटरी पे
जब से उतारी है,
धरती से, सख्ती से
किस्मत की तख्ती से
अश्कों की अलबेली
बरसात ज़ारी है..
आशिक कहे कैसे,
चुपचाप है भय से,
लेकिन ये सच है कि
चाहत की बेहद हीं
कीमत करारी है..
कड़्वी सुपारी है!
ओठों के कोठों पे
हर लम्हा सजती ये
हर लम्हा रजती ये
हर राग भजती है!
कोई न जाने कि
इसको चखे जो
सलाखों के पीछे
इतना धंसे वो
कि
दिल का मुचलका
जमा करने पर भी
तो
बाकी जमाने हीं
भर की उधारी है..
कैसा जुआरी है?
आँखों से पासे
जो फेंके अदा से,
उन्हीं में उलझ के
कहीं और मँझ के
किसी की हँसी पे
बिना सोचे रीझ के
ये मन की तिजोरी
से मुहरें गँवा दे..
तभी तो
कभी तो
बने ये भिखारी है..
आशिक भी यारों
बला का जुआरी है..
मानो, न मानो
पर सच तो यही है-
मोहब्बत बड़ी हीं
कड़वी सुपारी है..
-विश्व दीपक
Thursday, April 29, 2010
हीर सारी उदास बैठी हैं
और समन्दर के पास बैठी हैं
पालकी के यूँ पास बैठी हैं
सारी सखियाँ उदास बैठी है
खुदकुशी ठान ली चिरागों ने
ऑंधियाँ बदहवास बैठी हैं
मौत ने खत्म कर दिये शिकवे
सौतनें आस पास बैठी हैं
बेटे आफ़िस, बहुएँ गईं दफ़्तर
घर सँभाले तो सास बैठी हैं
हो गई खत्म नस्ल रांझों की
हीर सारी उदास बैठी हैं
‘श्याम’ के आसपास बैठी हैं
गोपियाँ कर के रास बैठी हैं
Sunday, April 25, 2010
हे! आध्यात्म का क्रेश-कोर्स चलने वाले संतो
पुरस्कृत कविताः मनगढ़ का मन
पैसठ लोग एक पुण्यतिथि के उपलक्ष में
आयोजित एक भंडारे में
दीवाल गिरने से हुई भाग-दौड़ में
कुचलकर दबकर, मर गए,
मंदिर प्रबंधन ने कहा है कि
दुर्घटना परिसर से बाहर हुई है
लिहाजा मंदिर जिम्मेदार नहीं है
समय जिम्मेदार है, काल जिम्मेदार है
और जिसे इस घटना की नैतिक जिम्मेदारी लेनी थी
वो दानवीर “कृपालु्“ मोह माया से दूर
किसी कोने में बैठा, भजन पद गा रहा था
मथुरा में भंडारे की योजना बना रहा था
इस घटना से
मनगढ का मन बहुत व्यथित है
और सोच रहा है
शायद कृपालुओं के पास
आध्यात्मिक शक्ति हो होती है
पर आत्मिक शक्ति और नैतिक साहस नहीं
तभी तो–
दिल्ली के इच्छाधारी बाबा
लड़कियों की इच्छा से "धंधा" करवाते हैं
कौन, कब, किसके साथ सोयेगी
इसका शेडडूल बनाते है
मीठी वाणी में रविशंकर
आर्ट आफ लिविंग का पाठ पढाते हैं।
और, देश के सारे श्री श्री, ज्ञानी, ध्यानी
संगम में पहले नहाने के लिए लड़ जाते है
और "अखाड़ा" कहलाते हैं।
"सम्भोग से समाधि की ओर"
लिखने वाले रजनीश
समाधि से सम्भोग की ओर जाते हैं
दुनिया पर आध्यात्म का नशा
चढ़ाने से पहले
अपने उपर थैलियम आजमाते हैं
और दिन भर ब्रह्मचर्य पर प्रवचन देने वाले
नित-आनंद , नित्यानंद
शिष्या को शैया तक ले आते हैं
और अपनी अनैतिकता को
प्राइवेशी का जामा पहनाते है।
हे! आध्यात्म का क्रेश-कोर्स चलने वाले संतो
एक बात कहूँ–
तुमने "आस्था" के जरिये
बहुतों की आस्था डगमगाई है
भक्ति विश्वास और प्रेम बेचकर
करोड़ों की सम्पति बनाई है
चाहो तो करोड़ों, अरबों और ले लो
पर कृपा करके अब
ये आनाचार बंद करो
हमारी आत्मा का दुराचार बंद करो
दुराचार बंद करो।
~देवेश पाण्डेय
पैसठ लोग एक पुण्यतिथि के उपलक्ष में
आयोजित एक भंडारे में
दीवाल गिरने से हुई भाग-दौड़ में
कुचलकर दबकर, मर गए,
मंदिर प्रबंधन ने कहा है कि
दुर्घटना परिसर से बाहर हुई है
लिहाजा मंदिर जिम्मेदार नहीं है
समय जिम्मेदार है, काल जिम्मेदार है
और जिसे इस घटना की नैतिक जिम्मेदारी लेनी थी
वो दानवीर “कृपालु्“ मोह माया से दूर
किसी कोने में बैठा, भजन पद गा रहा था
मथुरा में भंडारे की योजना बना रहा था
इस घटना से
मनगढ का मन बहुत व्यथित है
और सोच रहा है
शायद कृपालुओं के पास
आध्यात्मिक शक्ति हो होती है
पर आत्मिक शक्ति और नैतिक साहस नहीं
तभी तो–
दिल्ली के इच्छाधारी बाबा
लड़कियों की इच्छा से "धंधा" करवाते हैं
कौन, कब, किसके साथ सोयेगी
इसका शेडडूल बनाते है
मीठी वाणी में रविशंकर
आर्ट आफ लिविंग का पाठ पढाते हैं।
और, देश के सारे श्री श्री, ज्ञानी, ध्यानी
संगम में पहले नहाने के लिए लड़ जाते है
और "अखाड़ा" कहलाते हैं।
"सम्भोग से समाधि की ओर"
लिखने वाले रजनीश
समाधि से सम्भोग की ओर जाते हैं
दुनिया पर आध्यात्म का नशा
चढ़ाने से पहले
अपने उपर थैलियम आजमाते हैं
और दिन भर ब्रह्मचर्य पर प्रवचन देने वाले
नित-आनंद , नित्यानंद
शिष्या को शैया तक ले आते हैं
और अपनी अनैतिकता को
प्राइवेशी का जामा पहनाते है।
हे! आध्यात्म का क्रेश-कोर्स चलने वाले संतो
एक बात कहूँ–
तुमने "आस्था" के जरिये
बहुतों की आस्था डगमगाई है
भक्ति विश्वास और प्रेम बेचकर
करोड़ों की सम्पति बनाई है
चाहो तो करोड़ों, अरबों और ले लो
पर कृपा करके अब
ये आनाचार बंद करो
हमारी आत्मा का दुराचार बंद करो
दुराचार बंद करो।
~देवेश पाण्डेय
Sunday, April 18, 2010
मेरा अपना ही क्रंदन है और अकेला मैं हूँ
मन का गहरा खालीपन है और अकेला मैं हूँ
जैसे कोई निर्जन वन है और अकेला मैं हूँ
जिसको सुनकर रातों को मैं अक्सर जाग गया हूँ
मेरा अपना ही क्रंदन है और अकेला मैं हूँ
मेरे घर के आस पास ही रहना चाँद सितारों
मेरी नींदों से अनबन है और अकेला मैं हूँ
पक्की करके रक्खूं मैं मन की कच्ची दीवारें
मेरी आँखों में सावन है और अकेला मैं हूँ
कुछ आधी पूरी कवितायें कुछ यादें कुछ सपने
मेरे घर में कितना धन है और अकेला मैं हूँ
जीवन के कितने प्रश्नों के उत्तर नहीं मिलें हैं
समय बचा अब कितना कम है और अकेला मैं हूँ
कभी कभी लगता है कोई करे प्यार की बातें
'रवि ' बड़ा नीरस जीवन है और अकेला मैं हूँ
कवि- रवीन्द्र शर्मा 'रवि'
जैसे कोई निर्जन वन है और अकेला मैं हूँ
जिसको सुनकर रातों को मैं अक्सर जाग गया हूँ
मेरा अपना ही क्रंदन है और अकेला मैं हूँ
मेरे घर के आस पास ही रहना चाँद सितारों
मेरी नींदों से अनबन है और अकेला मैं हूँ
पक्की करके रक्खूं मैं मन की कच्ची दीवारें
मेरी आँखों में सावन है और अकेला मैं हूँ
कुछ आधी पूरी कवितायें कुछ यादें कुछ सपने
मेरे घर में कितना धन है और अकेला मैं हूँ
जीवन के कितने प्रश्नों के उत्तर नहीं मिलें हैं
समय बचा अब कितना कम है और अकेला मैं हूँ
कभी कभी लगता है कोई करे प्यार की बातें
'रवि ' बड़ा नीरस जीवन है और अकेला मैं हूँ
कवि- रवीन्द्र शर्मा 'रवि'
Saturday, April 17, 2010
इश्क उस से ही किया जाता है...........
मुहब्बत में जो खता होती है
उसकी खुशबू ही जुदा होती है
इश्क उस से ही किया जाता है
जिस से उम्मीदे वफ़ा होती है
मौत से जिस्म ही नहीं मरता
दिल से धड़कन भी जुदा होती है
सब्र करने से पता चलता है
दर्दे दिल की भी दवा होती है
उसकी कुदरत में एक शय है जो
मेरी चाहत पे फ़ना होती है
मौत ही है कि जो नहीं आती
जिन्दगी रोज़ खफा होती है
उसकी खुशबू ही जुदा होती है
इश्क उस से ही किया जाता है
जिस से उम्मीदे वफ़ा होती है
मौत से जिस्म ही नहीं मरता
दिल से धड़कन भी जुदा होती है
सब्र करने से पता चलता है
दर्दे दिल की भी दवा होती है
उसकी कुदरत में एक शय है जो
मेरी चाहत पे फ़ना होती है
मौत ही है कि जो नहीं आती
जिन्दगी रोज़ खफा होती है
Wednesday, April 14, 2010
लूट लिया जिसने दिल को --gazal by shyam skha
यूँ तो वो चितचोर न था
दिल पे मेरा ही जोर न था
लूट लिया जिसने दिल को
वो मामूली चोर न था
अँखियाँ बरसीं, मन भीगा
नाचा मन का मोर न था
दिल का शीशा टूट गया
और कहीं कुछ शोर न था
दुख को देखा दूर तलक
दुख का कोई छोर न था
भरी दुपहरी सूरज गुम
बादल भी घनघोर न था
दिल पे मेरा ही जोर न था
लूट लिया जिसने दिल को
वो मामूली चोर न था
अँखियाँ बरसीं, मन भीगा
नाचा मन का मोर न था
दिल का शीशा टूट गया
और कहीं कुछ शोर न था
दुख को देखा दूर तलक
दुख का कोई छोर न था
भरी दुपहरी सूरज गुम
बादल भी घनघोर न था
दर्द की फ़स्ल का....
यूं भला कब तक मेरा इम्तिहान लोगे तुम
इस तरह तो एक दिन मेरी जान लोगे तुम
हाँ खड़ी इक फ़स्ल गम की है मेरे इस दिल में
दर्द की इस फ़स्ल का भी लगान लोगे तुम
एक पैसा दे के मैने दुआ थी मांगी जब
कह उठा तब था फकीर आसमान लोगे तुम ?
इस तरह तो एक दिन मेरी जान लोगे तुम
हाँ खड़ी इक फ़स्ल गम की है मेरे इस दिल में
दर्द की इस फ़स्ल का भी लगान लोगे तुम
एक पैसा दे के मैने दुआ थी मांगी जब
कह उठा तब था फकीर आसमान लोगे तुम ?
माँ की आँखें गीली-गीली
बच्चों के इशारे पेट तरफ़
मजदूर चले फिर सेठ तरफ़
तसले में उम्मीद पकाओ
मत देखो सूखे खेत तरफ़
प्यार की राहें और भी थीं
क्यूँ आये तुम रेत तरफ़
माँ की आँखें गीलीं-गीलीं
चले जो हम परदेस तरफ़
सारी दुनिया दुश्मन अपनी
हम-तुम दोनों एक तरफ़
मयख़ाने में जश्न मनेगा
उठा तू अँगुली शेख़ तरफ़
चाँद की सूरत बिकने वाली
हम भी देखें जेब तरफ़
नंगेपन को मत ले आना
आना जब इस देस तरफ़
रुस्तम सौ, सोहराब हज़ारों रखती है.. Dedicated to Naina
आँखों में असबाब हज़ारों रखती है,
वो लड़की जो ख्वाब हज़ारों रखती है....
रोती है, जब चाँद सिकुड़ता थोड़ा भी,
पर खुद हीं आफ़ताब हज़ारों रखती है....
क्या जाने, क्यों होठों पे सौ रंग भरे,
जब उन में गुलाब हज़ारों रखती है..
मैं क्या हूँ! गर्वीली अपने कदमों में
रुस्तम सौ, सोहराब हज़ारों रखती है..
वैसे तो गुमसुम रहती है लेकिन वो
इक आहट में आदाब हज़ारों रखती है..
-विश्व दीपक
-विश्व दीपक
Tuesday, April 13, 2010
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार
आज सिन्धु ने विष उगला है
लहरों का यौवन मचला है
आज ह्रदय में और सिन्धु में
साथ उठा है ज्वार
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार
लहरों के स्वर में कुछ बोलो
इस अंधड में साहस तोलो
कभी-कभी मिलता जीवन में
तूफानों का प्यार
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार
यह असीम, निज सीमा जाने
सागर भी तो यह पहचाने
मिट्टी के पुतले मानव ने
कभी ना मानी हार
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार
सागर की अपनी क्षमता है
पर माँझी भी कब थकता है
जब तक साँसों में स्पन्दन है
उसका हाथ नहीं रुकता है
इसके ही बल पर कर डाले
सातों सागर पार
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार ।।
Sunday, April 11, 2010
हमेशा गाँव ही खुद को शहर में ढाल लेते हैं
गरीबी में भी बच्चे यूँ उड़ाने पाल लेते हैं
ज़रा सी डाल झुक जाए तो झूला डाल लेते हैं
जहाँ में लोग जो ईमान की फसलों पे जिंदा हैं
बड़ी मुश्किल से दो वक्तों की रोटी दाल लेते हैं
शहर ने आज तक भी गाँव से जीना नहीं सीखा
हमेशा गाँव ही खुद को शहर में ढाल लेते हैं
परिंदों को मोहब्बत के कफस में कैद कर लीजे
न जाने लोग उनके वास्ते क्यों जाल लेते हैं
अभी नज़रों में वो बरसों पुराना ख्वाब रक्खा है
कोई भी कीमती सी चीज़ हो संभाल लेते हैं
ये मुमकिन है खुदा को याद करना भूल जाते हों
तुम्हारा नाम लेकिन हर घडी हर हाल लेते हैं
हमें दे दो हमारी ज़िन्दगी के वो पुराने दिन
'रवि' हम तो अभी तक भी पुराना माल लेते हैं
Wednesday, April 7, 2010
हिंदी वादी
मेरा बचपन हिंदी में है, उसे अंग्रेजी-उर्दू संवाद नहीं आता,
माँ की लोरी, थपकी का मुझको अनुवाद नहीं आता |
मुझसे क्यूँ चाहती हो अदब विलायती या लखनवी,
माँ की लोरी, थपकी का मुझको अनुवाद नहीं आता |
मुझसे क्यूँ चाहती हो अदब विलायती या लखनवी,
छोटे शहर के लड़कों को देना दाद नहीं आता |
अशिक्षित हूँ, फ्रेंच, बंगाली, मराठी, तमिल, हिब्रू में,
मेरी कमी है कि मुझे इनमें करना विवाद नहीं आता |
लिखता, कहता हूँ कई आधी, सीखी जुबानों में,
पर विवशता है, परदेसी परोसी में वो स्वाद नहीं आता |
तुम जाओ जिस राह जाना चाहो, मेरा सुख मेरी मिट्टी में है,
मेरी सृष्टि है मेरी जन्मभूमि, मुझे बनना अपवाद नहीं आता |
भुला-सा दिया है तुमने इस विवेक को, कह मेरी सोच पुरानी है,
सहस्त्रों वर्षों की संस्कृति का मुझको करना त्याग नहीं आता |
Sunday, April 4, 2010
कोई तुमसे पूछे कौन हूँ मैं ,
कोई तुमसे पूछे कौन हूँ मैं ,
तुम कह देना कोई ख़ास नहीं .
एक दोस्त है कच्चा पक्का सा ,
एक झूठ है आधा सच्चा सा .
जज़्बात को ढके एक पर्दा बस ,
एक बहाना है अच्छा अच्छा सा .
जीवन का एक ऐसा साथी है ,
जो दूर हो के पास नहीं .
कोई तुमसे पूछे कौन हूँ मैं ,
तुम कह देना कोई ख़ास नहीं .
हवा का एक सुहाना झोंका है ,
कभी नाज़ुक तो कभी तुफानो सा .
शक्ल देख कर जो नज़रें झुका ले ,
कभी अपना तो कभी बेगानों सा
. जिंदगी का एक ऐसा हमसफ़र ,
जो समंदर है , पर दिल को प्यास नहीं .
कोई तुमसे पूछे कौन हूँ मैं ,
तुम कह देना कोई ख़ास नहीं .
एक साथी जो अनकही कुछ बातें कह जाता है ,
यादों में जिसका एक धुंधला चेहरा रह जाता है .
यूँ तो उसके न होने का कुछ गम नहीं ,
पर कभी - कभी आँखों से आंसू बन के बह जाता है .
यूँ रहता तो मेरे तसव्वुर में है ,
पर इन आँखों को उसकी तलाश नहीं .
कोई तुमसे पूछे कौन हूँ मैं ,
तुम कह देना कोई ख़ास नहीं .........
Saturday, April 3, 2010
इश्क़ है तुमसे यही है
कुछ ग़लत ना सब सही है
इश्क़ है तुमसे यही है
बेवफा हो तुम सही है
हम जानते हैं बस यही है
मैं जो सहरा हूँ सही है
तुम समंदर हो यही है
ख्वाब में तुम हो सही है
आँखें खुली हैं बस यही है
तुम यहीं तो हो सही है
हो नहीं पर बस यही है
मैं मज़े में हूँ सही है
तुम नहीं हो बस यही है
मैँ नशे में हूँ सही है
पी नही है बस यही है
Thursday, April 1, 2010
कल वो मुझको याद करेगा
कल वो मुझको याद करेगा
व्यर्थ आँसू बरबाद करेगा
कल सब-कुछ स्वीकारेगा वो
लेकिन आज फ़साद करेगा
लगता था उसका मैं भी कुछ
याद मौत के बाद करेगा
कुट्टी कर लेगा यदि मुझसे
फिर किससे संवाद करेगा
अब भी गर नाकाम रहा तो
नव साजि़श ईजाद करेगा
बस्ती में जो कर गुजरा वो
क्या कोई जल्लाद करेगा
व्यर्थ आँसू बरबाद करेगा
कल सब-कुछ स्वीकारेगा वो
लेकिन आज फ़साद करेगा
लगता था उसका मैं भी कुछ
याद मौत के बाद करेगा
कुट्टी कर लेगा यदि मुझसे
फिर किससे संवाद करेगा
अब भी गर नाकाम रहा तो
नव साजि़श ईजाद करेगा
बस्ती में जो कर गुजरा वो
क्या कोई जल्लाद करेगा
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