Saturday, February 20, 2010

कबूतर!


कबूतर!
तुम कब सुधरोगे ?
आख़िर तुम क्यों कभी
मन्दिर के अहाते में उतरते हो
तो कभी
मस्ज़िद के आले में ठहरते हो?
क्या तुम्हें पता नहीं है
इनका आपस में
कोई वास्ता नहीं है,
मन्दिर से मस्ज़िद तक
या मस्ज़िद से मन्दिर तक
कोई रास्ता नहीं है।

अरे! अगर तुममें
इतनी भी अक्ल नहीं है,
तो क़्यों नहीं तुम हमसे सीखते हो?
क्यों नहीं तुम भी रट लेते हो।
हमारी बौद्धिक पुस्तकों की भाषा,
जिनमें हमें बताया गया है-
मन्दिर में हिन्दू पूजा करते हैं,
मस्ज़िद में मुसलमाँ सजदा करते हैं
जिनमें यह नहीं बताया गया है
ईद, होली भारत का प्रमुख त्यौहार है
वरन जो बतलाता है
ईद मुसलमानों का त्यौहार है
और
होली, दीवाली हिन्दुओं का है पर्व।

अरे! हमसे सीखो
हम अपना धर्म बचाने के लिए
क्या नहीं करते हैं,
कभी बारूद बनकर मारते हैं
तो कभी बारूद से मरते हैं।
एक तुम हो-
जिसे आनी चाहिए शरम
तुम्हें अब तक ये सलीका नहीं आया
कि पहचान सको अपना धरम।

तुम कहाँ थे जब
मन्दिर हथौड़ा लिए खड़ा था,
मस्ज़िद ख़ंजर लिये
हर राह में अड़ा था?
तुम तो सबक लो
हमारी उन्नत सभ्यता से
हम बेशक खुद को नहीं जानते हैं,
पर अपना-अपना धरम
बखूबी पहचानते हैं।

अरे तुम तो
उस दिन से डरो
जब तुम मरोगे!
उस दिन भी क्या तुम
यही करोगे?
कबूतर तुम कब सुधरोगे?



Thursday, February 18, 2010

है जान तो जहान है

है जान तो जहान है
 
फिर काहे का गुमान है

 
क्या कर्बला के बाद भी
 
एक और इम्तिहान है

 
इतरा रहे हैं आप यूँ
 
क्या वक्त मेहरबान है

 
हैं लूट राहबर रहे
 
जनता क्यों बेजुबान है

 
है श्याम बेवफ़ा नहीं
 
इतना तो इत्मिनान है

Tuesday, February 16, 2010

बिकाऊ शहर में हर ओर अब बाज़ार बाक़ी हैं


सभी सपने नहीं टूटे अभी दो चार बाकी हैं
 
 कहो अश्कों से आँखों में अभी अंगार बाकी हैं

 
खुदाया ये तेरी दुनिया में इतना फर्क सा क्यों है
 
कहीं पर भूख बाकी है कहीं ज़रदार बाकी हैं

 
खरीदारी बची है या बचे हैं बेचने वाले
 
बिकाऊ शहर में हर ओर अब बाज़ार बाक़ी हैं

 
अभी भी ज़िन्दगी का जश्न हम मिलकर मनाते हैं  

हमारे देश में अब भी कई त्यौहार बाक़ी हैं


हमे हैरान होकर देखते हैं देखने वाले
 
मिटाया है हमे हर बार हम हर बार बाक़ी हैं

यूनिकवि-रवीन्द्र शर्मा 'रवि '

मुफलिसी

मेरा लुट गया है सब कुछ.. मेरे पास कुछ नहीं है..

ना ही आसमां बचा है.. ना एक गज जमीं है..
 

सांसों की सिस्कियाँ ही.. देती हैं बस सुनाई..
 

मेरी मुफलिसी को देखा.. तो मौत भी ना आई..
 

मेरी मुफलिसी को देखा................

 

हुए सपने सब छलावे.. और अपने सब पराये..
 

रिश्ते भी ऐसे रिसते.. कोइ घाव रिसता जाये..
 

गमे दास्ताँ लिखी तो.. अश्को ने आ मिटाई..
 

मेरी मुफलिसी को देखा.. तो मौत भी ना आई..
 

मेरी मुफलिसी को देखा................

 

शमशान सी थी महफिल.. गाये जो गीत हंसकर..
 

कोई न देखता था.. पंजों के बल उचककर..
 

मिलीं तालियाँ गजब की.. गमे दास्तां सुनाई..
 

मेरी मुफलिसी को देखा.. तो मौत भी ना आई..
 

मेरी मुफलिसी को देखा................

 

जो थीं हंसी की बातें.. उडने लगीं हंसी में..
 

मैंने सुना है ऐसा.. होता है मुफलिसी में..
 

मेरे साथ जो हुआ तो.. हुई कौन सी बुराई..
 

मेरी मुफलिसी को देखा.. तो मौत भी ना आई..मेरी 

मुफलिसी को देखा................

तो बड़ा शायर हूँ..

मैं चाँद को दरीचों में उतारूँ तो बड़ा शायर हूँ,


मैं रात से गलीचों को सवारूँ तो बड़ा शायर हूँ,


मैं ख़्वाब में तारों की पनाह लूँ तो बड़ा शायर हूँ,


मैं आग से साँसों की निबाह लूँ तो बड़ा शायर हूँ,


मैं रूह की ये राख उड़ा दूँ तो बड़ा शायर हूँ,


मैं जिस्म की हर फ़ाँक जला दूँ तो बड़ा शायर हूँ।





मैं हर बात वो कर जाऊँ जो मुमकिन हीं नहीं,


शब्दों में वो पा जाऊँ जो हासिल हीं नहीं,


आँखों पे टाँक दूँ मैं कोई और हीं जहां,


कानॊं में ठेलता रहूँ उलझी-सी दास्तां,


पलकों को उबासी से पशेमान मैं कहूँ,


कदमों को सज़ायाफ़्ता परेशान मैं कहूँ,


सीने में खोंस आऊँ मैं बुलबुल कोई घायल,


रानाईयाँ इतनी भरूँ, कुदरत भी हो कायल,


लैला के सुर्ख होठों को दैर-ओ-हरम कहूँ,


मजनूं की मौत आए तो हक़ बेशरम कहूँ,


मैं हद कोई रहने न दूँ लिखने जभी बैठूँ,


हर हर्फ़ सौ गुना करूँ, हर ख्याल मैं ऐठूँ,


मैं बंद की बंदिश हीं मिटा दूँ तो बड़ा शायर हूँ,


हर चंद को मुफ़लिस जो बना दूँ तो बड़ा शायर हूँ।





पर मैं अगर जो सीधे-सादे लफ़्ज़ों में इतना कहूँ,


जी नही पाऊँगा तुझ बिन, बोल दे कैसे रहूँ,


या कि मैं ऐसा कहूँ कि झूठों का ये दौर है,


डूबते इस देश का अब भ्रष्ट हीं सिरमौर है,


या कि खुश हो लूँ कभी तो बोल मैं यूँ कर लिखूँ,


भूल कर सारे गमों को ज़िंदगी बेहतर लिखूँ,


मैं अगर कुछ ना लपेटूँ, ना कहीं अतिशय करूँ,


तो मुझे डर है कि यूँ मैं स्तर ना नीचे करूँ।





....





मैं यहाँ सिर्फ़ मैं नहीं वो सभी शायर हूँ जो,


सोच में बदलाव से शापित हैं कि मरते रहो,


वो जो पहले लिखते थे कुछ और, अब कुछ और हीं,


पहले लिखते दिल से थे, अब तो दिल लगता नही,


लेकिन करते भी तो क्या, वक्त की ये माँग है,


"कोई नई उपमा रचो, लिखो वो जो ऊट-पटाँग है,


फिर तभी हरेक से पूछे और पूजे जाओगे,


फिर नई कविता के दम पे पुस्तकों में आओगे,


और हाँ, अपने सड़े-से सब पुराने छंदों को,


दूर फेंको कि नज़र न आए हुनर-पसंदों को"


बस इसी कारण ये सारे हुनर अपना त्याग के,


भेड़-चाल में लगे हैं रात-रात जागके,


बस इसी का डर है कि दौड़ में छूटे नहीं,


लेखनी से रिश्ता जो था, अब कहीं टूटे नहीं।





इस तरह लेखन जो हो तो लिखने का क्या फ़ायदा,


नई सोच हीं सही सोच है- ये है कहाँ का कायदा?


गर मुक्तछंद हीं है सही तो छंद को जनना न था,


वेदों को फिर छंद-युक्त पोथियाँ बनना न था,


जो निराला ने लिखा, निस्संदेह वो अतुल्य है,


पर गुप्त का, प्रसाद का, दिनकर का भी तो मूल्य है,


इसलिए इतनी गुजारिश करता हूँ तुमसे ओ मित्र!


एक-सी नज़रों से देखो इन चितेरों के ये चित्र,


फिर तभी तो एक युग में हर तरह के रंग होंगे,


देखकर कविता की खुशियाँ, सब हितैषी दंग होंगे।



....

जो कहा इतना हीं कुछ है, तो ये भी कहता चलूँ,


वो लिखो जो हर किसी को समझ आए, दे सुकूं,


"गर सभी समझें कवि को तो कवि काहे का वो",


परसाई जी की बात ये एक व्यंग्य है,तुम जान लो,


इसलिए तुम शब्द दो सुलझे हुए ख़्यालात को,


जो अना आगे बढे तो रोक लो जज़्बात को,


ना लिखो ऐसा कि लोग डर से बस अच्छा कहें,


कि अगर कुछ ना कहा तो सब न फिर बच्चा कहें,


बेवज़ह-से लफ़्ज़ को हर शेर से तुम नोंच लो,


छूना हो जो दिल अगर तो सोच को कुछ लोच दो।


और ये भी ध्यान हो कि शायरी बेमोल है,


तो भला कैसे यहाँ छोटा-बड़ा का तोल है,


फिर भी गर कोई धर्म-कांटा आए तो ऐसा न हो,


शब्द सारे "बाट" हों और भाव का रूतबा न हो,


या कि बस हीं भाव हो और शब्द सारे गौण हों


ज्यों कोई ज्ञानी, सुधर्मी जन्म से हीं मौन हो,


इसलिए मेरा मानना है- एक उचित अनुपात हो,


फिर तभी तो जब किसी शायर से कोई बात हो,


तो वो बस दिल की कहे और बस दिल की सुने,


और दिल हीं दिल में वो बस यही बातें गुने-


किसी दिल में जो पनाह लूँ तो बड़ा शायर हूँ,


अगर खुद से हीं निबाह लूँ तो बड़ा शायर हूँ।


-विश्व दीपक

Sunday, February 14, 2010

प्यार की परिभाषा



प्यार ...
क्या है यह ?
लफ्ज़ नही है सिर्फ़
जिसे बाँध लिया जाए
किसी सीमा में
और खत्म कर दिया जाए
उसकी अंतहीनता को

प्यार ....
वस्तु भी नही है कोई
यह तो है एक एहसास
एक आश्वासन
जो धीरे धीरे
दिल में उतरता
मुक्त गगन सा विचरता
शब्दों को कविता कर जाता है

प्यार .....
है नयनों में भरा सपना
जो कई अनुरागी रंगो से रंगा
चहकता है पक्षी सा
अंधेरों को उजाले से भरता
नदी सा कल कल करता
बूंद को सागर कर जाता है

प्यार .....
मिलता है सिर्फ़
दिल के उस स्पन्दन पर
जब सारा अस्तित्व मैं से तू हो कर
एक दूजे में खो जाता है
कंटीली राह पर चल कर भी
जीवन को फूलों सा मह्काता है !!

ये बात उन दिनों की है

ये बात उन दिनों की है
 

जब मैं कविता लिखा करता था

जब
 

डाउन-टू-अर्थ होना फैशन स्टेटमेंट नहीं था
 

और हम माँ के ठेकुए छोड़
 

पिज्जा खाने निकल जाते थे
 

तब हमारे पास वक्त पैसों से कुछ ज्यादा हुआ करता था


 

जब
 

मैंने खरीदी ही थी लाल वाली डायरी और जेटर की लाल कलम
 

जब लिखते समय
 

कोई अक्सर आ जाया करता था
 

सामने वाली खिड़की पर बाल सुखाने
 

हम दोनों के बीच होता था बस गिलहरी भर का फासला
 

तब सूरज का रंग कुछ ज्यादा ही लाल हुआ करता था


 

बहुत दिनों से नहीं लिखी मैंने कोई कविता
 

और पोलीथिन में ठेकुए का चूरा भर बचा है
 

महीनों से बंद है डायरी और खिड़की
 

गिलहरी शायद अब भी आती हो वहां
 

पर यक़ीनन
 

कोई नहीं आता होगा बाल सुखाने
 

अब


कवि- पावस नीर

Wednesday, February 10, 2010

झूठ कभी मुझको रास नहीं आया



झूठ कभी मुझको रास नहीं आया

सच सुनकर कोई पास नहीं आया

कौन भला समझे अब दुख हाकिम का

हुक्म बजाने को दास नहीं आया

भूखे पेट सदा सोये हम यारो

करना लेकिन उपवास नहीं आया

पाँव बुजुर्गों के दाबे हैं हमने

यार हुनर यह अनायास नहीं आया

ईद दिवाली होली त्यौहार गए 

धन्नो हिस्से अवकाश नहीं आया

‘आम‘ सभी बिकते हैं बेभाव यहाँ 

`श्याम `कभी बिकने ‘खास‘ नहीं आया